फिस्सड्डी मुख्यमंत्री की सूची में त्रिवेंद्र पहले स्थान पर।

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प्रतिष्ठित चैनल के सर्वे में हुआ खुलासा।
देेहरादूनः कंपनी का ब्रांड खरीदारी के समय देखा जाता है, इस्तेमाल करते समय माल खराब निकले तो उपभोक्ता कंपनी को त्यागने का निर्णय ले लेता है। यही कुछ त्रिवेंद्र रावत के मामले में हो रहा है।

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उत्तराखंड में नरेंद्र मोदी के नाम पर सत्ता में आई भाजपा नीत सरकार के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत सबसे खराब मुख्यमंत्रियों के मामले में अव्वल आए हैं। यह खुलासा भाजपा के लिए धक्का देने वाला है, साथ ही यह खबर उत्तराखंड के संदर्भ में बताने के लिए काफी है कि यहां किस कदर विकास हो रहा होगा।
नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा दूसरी बार 2019 में केंद्र में सत्ता में आयी थी, जबकि 2017 में उत्तराखंड में कांग्रेस की बुरी गत कर भाजपा ने परचम लहराया था। इसके लिए तब राज्य में भाजपा के अनेक नेता अपनी पीठ थपथपा रहे थे। यह बात दीगर है कि चुनाव के एक साल बाद ही अधिकांश लोग अधिकांश विधायकों समेत मुख्यमंत्री को पानी पी-पीकर कोसने लगे थे, क्योंकि उन्हें अपेक्षा के अनुरूप विकास कहीं भी दिखायी नहीं दे रहा था। बताया जाता है कि 2017 के चुनाव में भाजपा के 70 प्रतिशत उम्मीदारों की नैया मोदी लहर के कारण पार हुयी थी। योग्य न होते हुए भी ऐसे लोगों के जीत जाने का खामियाजा उत्तराखंड को दुर्दशा के रूप में झेलना पड़ा। राज्य में बेरोजगारी और पलायन के दो बड़े ज्चलंत मुद्दे जस के तस हैं। रोजगार के लिए छटपटाते उत्तराखंड में तब से न तो अपेक्षित रोजगार मिल पाया और न ही पलायन रुक पाया। ’जीरो टाॅलरेंस’ का विज्ञापन करने वाली सरकार भ्रष्टाचार के मामले में भी दूध की धुली नहीं रह पायी। सरकार के मुखिया त्रिवेंद्र रावत अपने ही कुनबे को खुश और संतुष्ट रखने में कामयाब नहीं हो पाये। इसके चलते कुछ विधायक हाईकमान के दरवाजे पर तक दस्तक देने तक पहुंच गए थे। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष वंशीधर भगत के ’बड़े बोल’ हों या उत्तराखंड को गाली देने वाले विधायक कुंवर प्रणवसिंह चैंपियन की पार्टी में वापसी का मामला हो, इन मामलों से भी पार्टी और सरकार की फजीहत हुई।
त्रिवेंद्र रावत पर काफी पहले से ही आरोप लगता रहा है कि वे अलोकप्रिय हैं। उनका व्यवहार सही नहीं है और उत्तराखंड के विकास से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। यह आरोप हाल ही में एक टीवी न्यूज सर्वे (एबीवीपी न्यूज) के आधार पर पुष्ट होता दिखायी दे रहा है। इसमें सबसे खराब मुख्यमंत्रियों के मामले में त्रिवेंद्र रावत को पहले नंबर पर जगह मिली है। बताया जाता है कि त्रिवेंद्र रावत पिछले साल खराब मुख्यमंत्रियों के मामले में दूसरे नंबर पर थे, लेकिन यह भी बताया जाता है कि उन्हें एक कंपनी द्वारा ’बेस्ट सीएम आॅफ इंडिया’ का अवार्ड भी मिला था। इससे साफ जाहिर होता है कि या तो त्रिवेंद्र रावत को मिला वह पुरस्कार झूठा था या फिर यह सर्वे ’झूठा’ है। किसी राज्य के मुखिया की जब यह स्थिति हो तो उसके अन्य सहयोगियों से बहुत बड़ी उम्मीद कैसे की जा सकती है? आखिर इसका खामिजाया भुगतने के लिए भाजपा क्यों न तैयार रहे?
बहरहाल, उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव के लिए गिना-चुना एक साल रह गया है। जो विकास और रोजगार संबंधी जनता की नाराजगी दूर करने के लिए नाकाफी है। और जो काम चार साल में नहीं हो पाया, उसका एक साल में हो पाना बहुत मुश्किल है। यह मुश्किल शब्द भाजपा के लिए राज्य में मुसीबत बन सकता है, क्योंकि उसके कार्यकर्ताओं के पास चुनाव के समय जनता के पास उपलब्धियां गिनाने के नाम पर ’कुछ नहीं’ होगा। त्रिवेंद्र रावत की यह स्थिति भाजपा के लिए और भी चिंता बढ़ाने वाली इसलिए होने वाली चाहिए कि मुद्दों को कैश कराने में माहिर आम आदमी पार्टी उत्तराखंड में दस्तक देकर विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट चुकी है। यह भी सुगबुगाहट है कि वोटर इस बार राज्य के काम के आधार पर ही वोट देने के मन बना चुका है।

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