डैमेज कंट्रोल: नड्डा के दौरे से पहले बांटे दायित्व

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कार्यकर्ताओं के असंतोष और आक्रोश के भय से त्रिवेंद्र रावत ने उठाया कदम

देर में बांटा सत्ता का सुख, अंदर ही अंदर नाराज हैं अनेक भाजपाई

देहरादूनः का वर्षा जब कृषि सुखानी। जब खेती सूख जाती है, तब बारिश का कोई लाभ नहीं होता। यह कहावत त्रिवेंद्र सिंह रावत के निर्णय पर एकदम फिट बैठ रही है। चार साल से दायित्वों को सुदामा के चावलों की तरह कांख में दबाए रखने वाले त्रिवेंद्र रावत को अब उन्हें बांटने की सुध आयी। वह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के उत्तराखंड दौरे से ऐन पहले। माना जा रहा है कि भाजपा के लोगों की अंदरूनी नाराजगी कहीं अध्यक्ष के सामने बम बनकर न फूट जाए, इसके लिए त्रिवेंद्र ने फैसला लिया है। हालांकि डैमेज कंट्रोल की इस नीति का लाभ त्रिवेंद्र रावत को मिलना मुश्किल प्रतीत हो रहा है।
उत्तराखंड मंे विधानसभा चुनाव हुए लगभग चार साल हो चुके हैं। 2022 में यहां चुनाव होने हैं। सरकार के पास सिर्फ 2021 का एक साल बचा है। इसीमें उसे ताबड़तोड़ विकास कार्य कर जनता को संतुष्ट करना है और कार्यकर्ताओं को भी खुश करना है, क्योंकि चुनाव में किसी पार्टी की जीत जनता और कार्यकर्ता दोनों की खुशी और संतोष पर निर्भर करती है। चुनाव के बाद से ही अनेक विधायक और बड़े स्तर के कार्यकर्ता पद पाने की लालसा में टकटकी लगाए बैठे थे, लेकिन सरकार इन इच्छाओं को भांपने के बावजूद दायित्व नहीं बांट पायी। यानी सत्ता का सुख कुछ ही हाथों में केंद्रित रहा। परिणामस्वरूप, विधायकों और कार्यकर्ताओं मंे असंतोष उपजने लगा और यह कुछ माह पहले सामने भी आ गया, त्रिवेंद्र सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर हाईकमान से शिकायत की गयी।
उधर, पलायन रोकने और रोजगार देने इत्यादि के मामले में भी सरकार जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पायी। इससे जनता में जबरदस्त असंतोष बताया जा रहा है। अब कार्यकर्ताओं और जनता दोनों के असंतोष को देख त्रिवेंद्र सरकार के सामने समस्या उत्पन्न हो गयी। बताया जा रहा है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नेड्डा 4 दिसंबर को उत्तराखंड के दौरे पर आ रहे हैं। कहीं नड्डा के सामने कार्यकर्ताओं का असंतोष न फूट जाए, इसके लिए त्रिवेंद्र सरकार ने मंगलवार को 11 नेताओं को दायित्व बांटे। बताया जा रहा है कि अभी अन्य दायित्व भी बांटे जा सकते हैं। भले ही त्रिवेंद्र रावत ने रोग बाहर आने से पहले उपचार मुहैया करवा दिया हो, लेकिन ’रोग’ की गंभीरता को देखते हुए इस उपचार का असरकारी होना मुश्किल है, क्योंकि बताया जा रहा है कि कार्यकर्ताओं में इस बात को लेकर रोष है कि उनके पास एक साल का समय रह गया है, इसमें कुछ महीने अभी कोरोना की भेंट चढ़ जाएंगे और इसके बाद कुछ समय आचार संहिता में चला जाएगा। इस प्रकार वे कागजों के लिए ही दायित्वदारी बन पाएंगे। बहरहाल, अब जेपी नड्डा के सामने कौन-कौन कार्यकर्ता अपना दुखड़ा रोता है और नड्डा उस दुख का क्या इलाज करते हैं, यह देखने वाली बात होगी।

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