फिर चित हुए धनसिंह, हाथ से फिसली सीएम की कुर्सी

चुगलखोर छवि से हुआ नुकसान, काम नहीं आयी त्रिवेंद्र-धनसिंह की जुगलबंदी

देहरादून। जरूरत से अधिक चालाकी कभी नुकसानदायक भी होती है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की रेस में शामिल डाॅ0 धनसिंह रावत दूसरी बार भी चूक गए और पुष्कर सिंह धामी जैसे कम चर्चित चेहरे ने सेहरा पहन लिया। बताया जाता है कि धनसिंह को उनकी ही हरकतें डुबो गयीं। इस घटनाक्रम से यह भी सिद्ध हो गया कि धनसिंह रावत भाजपा खेमे में उतने कद्दावर हैं नहीं, जितना कि हौवा खड़ा किया जाता है। वहीं, मुख्यमंत्री के लिए सतपाल महाराज का नाम भी तेजी से उछला। यद्यपि सतपाल धनसिंह से कहीं अधिक कद्दावर हैं और उनके समर्थकों की संख्या बहुत है, लेकिन उनकी खामी यही रही कि वे कांग्रेस पृष्ठभूमि के हैं, इसलिए पार्टी ने उन्हें सीएम की कुर्सी सौंपने से परहेज किया।
पिछले दिनों त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद से हटाया जा रहा था तो इस पद पर बैठाने के लिए धनसिंह रावत का नाम तेजी उछला। बताया गया कि यह नाम बड़ी प्लानिंग से उछाला गया था। यहां तक कि अंतिम समय तक धनसिंह का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए चलता रहा, लेकिन ऐन वक्त पर भाजपा ने तीरथसिंह रावत की ताजपोशी कर दी। वहीं, इस बार जब तीरथसिंह रावत को कुर्सी से हटाए जाने की चर्चा चली तो भी सीएम की कुर्सी के लिए धनसिंह रावत का नाम तेजी से उछला, परंतु भाजपा ने फिर सभी को चैंकाते हुए पुष्कर सिंह धामी को यह कुर्सी सौंप दी।
बताया जाता है कि धनसिंह रावत का पार्टी में वह दबदबा नहीं रहा, जो पहले था। पार्टी उन पर बहुत खुश नहीं है। बड़ी बात यह है कि धनसिंह की छवि चुगलखोर और षड्यंत्रकारी की बन चुकी है। वे अपने ही पार्टी के कुछ नेताओं की बातों को आलाकमान तक पहुंचाने में लगे रहते हैं। त्रिवेंद्र रावत के मुख्यमंत्रित्वकाल में वे दिल्ली जाकर आला नेताओं से उनकी निंदा करके आते थे, जब तीरथ सिंह रावत मुख्यमंत्री बने तो भी धनसिंह रावत चुगलखोरी और निंदा करते रहे। हालांकि तीरथसिंह अपने ऊल-जुलूल बयानों से भी विवादों से घिरे रहे, लेकिन धनसिंह ने उनके बारे में कुछ बातें दिल्ली दरबार में पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। धनसिंह ने तीरथ की धूमिल छवि का रंग और गाढ़ा करने का प्रयास किया। यही नहीं, उन्होंने खुद को सीएम प्रोजेक्ट करने के लिए अनेक हथकंडे अपनाए, लेकिन नामसमझी के कारण उनकी हवा निकल गयी।
पिछली बार सीएम की कुर्सी हासिल करने के लिए उन्होंने त्रिवेंद्र सिंह रावत के साथ जुगलबंदी कर ली थी, लेकिन इसमें वे कामयाब नहीं हो पाए। इस बार भी उन्होंने यही रास्ता आजमाया, लेकिन दूसरी बार चित हो गए। अपने ही विधानसभा क्षेत्र में उनकी छवि पर बट्टा लग चुका है। विकास कार्यों के प्रति बहुत ही लापरवाही के कारण अपने विधानसभा क्षेत्र में उनका स्थानीय लोग कई बार घेराव और विरोध कर चुके हैं। सूत्रों के अनुसार संघ द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार धनसिंह की स्थिति अपने क्षेत्र में बहुत खराब है और वे हार रहे हैं।
उच्च शिक्षा जैसा महत्त्वपूर्ण महकमा मिलने के बावजूद वे इसमें अपेक्षिक कार्य नहीं कर पाए। उच्च शिक्षा राज्यमंत्री बनते ही धनसिंह ने राज्य के महाविद्यालयों में लंबा तिरंगा झंडा लहराने की बात करते संघ का प्रिय होने के लिए जुगत तो की, लेकिन काॅलेजों-विश्वविद्यालयों की दशा सुधारने में वे नाकामयाब रहे। राज्य के महाविद्यालयों में पढ़ा रहे गेस्ट टीचर गरीबी की हालत में जी रहे हैं, उनका मानदेय आज के इस महंगाई के दौर में नहीं के बराबर है, ऊपर से नौकरी की कोई गारंटी नहीं। धनसिंह ने पहले से काॅलेजों में पढ़ा रहे गेस्ट टीचरों को काॅलेजों में स्थायी करने की योजना पर कोई काम नहीं किया, बल्कि आयोग के माध्यम से असिस्टेंट प्रोफेसरों की भर्ती करवा दी। इससे उत्तराखंड के अनेक युवा काॅलेजों में पढ़ाने से वंचित रह गए। हालात ये हैं कि धनसिंह महज घोषणाओं तक ही सिमट कर रह गए हैं। उन्हें अब अपना राजनींितक भविष्य कैसे संवारना है, इसके लिए उन्हें खास योजना बनानी होगी।

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